गुप्तकालीन संस्कृति
प्रशासन
इस युग की शासन-पद्धति के विषय में
फाहियान के विवरण, अभिलेख एवं सिक्के,
विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, कालीदास ग्रंथावली एवं
कामंदकीय नीतिसार आदि स्रोतों से जानकारी मिलती है।
शासन के समस्त विभागों की अंतिम शक्ति राजा के हाथों में निहित थी।
सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र युवराज होता था
जो शासन में राजा की मदद करता था।
युवराजों को प्रांतपति भी बनाया जाता था।
शासन में राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद थी।
एक ही मंत्री कई विभागों का प्रधान भी होता था।
संमुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण एक साथ
संधिविग्रहिक,
कुमारामात्य एवं
महादण्डनायक जैसे तीन पदों को संभालता था। (UGC NET 2022)
राजा स्वयं मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता करता था।
गुप्तकाल में पुरोहित को मंत्रिपरिषद में स्थान नहीं दिया गया।
साम्राज्य के विभिन्न पदों पर नियुक्त राजपरिवार के सदस्यों को
कुमारमात्य कहा जाता था।
अधिकारियों को नकद वेतन के साथ-साथ भूमि अनुदान देने की भी प्रथा थी।
सैन्य विभाग का गुप्त-प्रशासन में सर्वाधिक महत्व था।
सम्राट ही सेनाध्यक्ष होता था। वृद्ध सम्राट के सेना की अध्यक्षता युवराज करता था।
गुप्तकाल में पुलिस की समुचित व्यवस्था थी एवं इसके साधारण कर्मचारियों को
चाट एवं भाट कहा जाता था।
पहरेदार को
रक्षिन् कहा जाता था।
गुप्तचर विभाग काफी दक्ष था एवं इसके कर्मचारी
दूत कहलाते थे।
नारद स्मृति के अनुसार गुप्तकाल में 4 प्रकार के न्यायालय पाये जाते थे1.
कुल न्यायालय, 2.
श्रेणी न्यायालय, 3.
गुण न्यायालय एवं 4.
राजकीय न्यायालय।
शिल्प संघों के न्यायालय शिल्पियों एवं कारीगरों के विवादों का निपटारा किया करते थे।
शासन की सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य को कई
भुक्तियों (प्रांतों) में बाँटा गया था।
राजस्व प्रशासन 6 गुप्त लेखों से ज्ञात होता है इस काल में 18 प्रकार के ‘
कर’ प्रचलन में थे, परंतु उनके नाम वर्तमान में ज्ञात नहीं हैं।
तत्कालीन साहित्य में आय के कई साधनों का विवरण है भू-राजस्व-भाग,
उपरिकर (उद्रंगकर): कुल उपज का
1/6 हिस्सा लिया
जाता था। अन्य कर-भोग,
भूतोवात,
प्रत्याय एवं
विष्टि आदि। चुंगी-नगरों तथा गाँवों में बाहर से आने. वाले माल पर चुंगी लगती थी।
शुल्क व्यापारियों एवं शिल्पियों से लिया जाने वाला कर।
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